I Am Anonymous Me.People often tell me...What ?...I didn't get you ! Very Non Conclusive on almost every aspect of Life

Joker Says...


Joker Says...

...Why So Serious !

Expect and Accept


Expect

verb : expect (ex'pect)

Look forward to the probable occurrence of


Accept

verb : accept (ak'sept)

consider or hold as true


but these are related in a way... aren't they

When you are expecting some thing you do not want to accept...
But once you start accepting you no more expect


Five People you meet in Heaven



It is a nice book to read

It is about a person who meets five people after he dies.

He was somehow related to all these people when he
was alive.

All of them tell him something that proves to be a lesson
for him. ... and for us too.

It was I guess on bestsellers list for 95 weeks.
You can download it from here.

मुझको यकीं है

मुझको यकीन है सच कहती थी जो भी अम्मी कहती थी
जब मेरे बचपन के दिन थे , चाँद में परियां रहती थी

एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं
एक वो दिन जब आओ खेलें सारी गलियाँ कहती थी

एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थी

एक ये दिन जब लाखों ग़म और अकाल पडा है आंसू का
एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थी
मुझको यकीन है सच कहती थी जो भी अम्मी कहती थी
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियां रहती थी
मुझको यकीन है सच कहती थी जो भी अम्मी कहती थी

पहली जैसी मधुशाला , मेरी नन्ही मधुशाला



एक
समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!

बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भांति भांति का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक से बढ़कर एक , सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला

मृग मारिचिक मधुशाला



प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला


... हमेशा व्याकुल रहते हैं चाहते हैं की दूर हो जाए सब कुछ हमसे जब हम नहीं पा पाते हैं
किसी से बात करने की इच्छा नहीं होती ... पर फ़िर वही जीवन वही पाने की आस या कहें प्यास या तृष्णा ...

करते रहना पड़ता है कभी अपने लिए और बहुत बार तो पता भी नहीं चलता है की हम दूसरों के लिए कुछ करने केलिए मजबूर हो जाते हैं ... किसी किसी के लिए किसी न किसी रूप में resource होते हैं ...और भलाई भी इसी में है ...की धीरे धीरे इच्छा होते हुए भी ...

" WE LET LIFE CONSUME US ! "

एक रंग याद है, था बचपन सा



एक रंग याद है , था बचपन सा
बिना मिलावट के था सच मन सा
था गाढा पर बहुत सरल सा
छाप अमिट दी दीवारों पे मन के है छोड़

रंग रहे यही याद में, ह्रदय में हरदम
ऐसी इच्छा होती है हर क्षण
पर हरदम ही हो समय के अधीन
इच्छाएँ देती हैं दम तोड़

और धीरे धीरे अनचाहे मटमैले रंग
मन की दीवारों पर चढ़कर कर देते हैं ग्रस्त
झूट मिला के सच धो धो कर
बनता चढ़ता दीवारों पे मन के ये अनचाहा मटमैला रंग

छुटपन में होती थी बस इच्छा
हो जाऊं इन सब से बड़ा
पर जब हो चला ... बड़ा हूँ
लगता है छोटा ही था मैं अच्छा
छोटी बातें तो ना करता था
ओछी बातें तो ना करता था
अपनी अक्षमता ,छल और कपट को "दुनियादारी " तो ना कहता था

चाहिए जो वो ना मिलने पर
रो कर बस चुप हो जाता था
पर अब तो ना मिले अगर जो कुछ तो
उसको अपने अधीन करने में
दूसरों को रुलाने में अब आता है मजा बड़ा

छोटे में समझ में आता था बस
आकार में छोटे और बड़े का अर्थ
होकर बड़ा... कष्ट होता है
समझने जो लगा हूँ मन से छोटे और बड़े का अर्थ